संयमित मन मनुष्य का मित्र है, और स्वेच्छाचारी मन उसका शत्रु। स्वयं के सबसे अच्छे मित्र बनें, और स्वयं पर सबसे अधिक विश्वास करें। मन को निरंतर परमात्मा में स्थिर कर के रखें।
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हमारे जीवन में हमारा सब से बड़ा संघर्ष और युद्ध हमारी अपनी स्वयं की चेतना के भीतर होता है। इसके लिए हमें अपने बच्चों को और स्वयं को भी प्रशिक्षित करना होगा। बच्चों को डरा-धमका कर न रखें। हरेक बालक में कम से कम इतना तो साहस विकसित करें की वह बिना किसी भय के अपने मन की बात अपने माँ-बाप को, अपने से बड़ों को, और अपने अध्यापकों को कह सके।
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हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारा अपना स्वयं का भय है, जिस के साथ हमारा सबसे बड़ा युद्ध होता है। कभी कभी हम अपने स्वयं के परम शत्रु बन जाते हैं, इससे बड़ा शत्रु अन्य कोई भी नहीं है। स्वयं के सबसे अच्छे मित्र बनें, और स्वयं पर सबसे अधिक विश्वास करें।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय को बहुत अच्छी तरह से समझाया है। भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
"बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६:६॥"
"जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६:७॥"
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हमें अपने भाग्य यानि कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करने चाहियें। मनुष्य को अपने द्वारा अपना स्वयं का उद्धार करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है, और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है। जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है, परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा नित्य-प्राप्त है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२४
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