मेरे जीवन में चाहे लाखों कमियाँ हों, कितने भी अभाव हों, अब उनका कोई महत्व नहीं रहा है। यह भौतिक शरीर रहे या न रहे, इससे भी अब कोई प्रयोजन नहीं है। जब भगवान से कुछ चाहिए ही नहीं, तब सारी औपचारिक साधनाएं भी महत्वहीन हो गयी हैं, जिनमें भोग और योग का चाहे थोड़ा सा भी प्रलोभन हो।
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एकमात्र आकर्षण सच्चिदानंद परमब्रह्म का है जिनकी अनुभूतियाँ होती रहती हैं। परमात्मा की मेरी अवधारणा निज अनुभवों पर आधारित है। परमात्मा की अभीप्सा के अतिरिक्त अन्य कोई भी आकांक्षा नहीं है। जीवन में जितने भी शत्रु-मित्र मिले, मैं सबका आभारी हूँ, और सभी को धन्यवाद देता हूँ। वास्तव में स्वयं परमात्मा ही थे जो शत्रु-मित्र, माता-पिता, भाई-बहिन, और सब संबंधियों के रूप में आये। वे ही यह मैं बन गए हैं। इस जन्म से पूर्व भी उन्हीं का साथ था, और इस देह के अवसान के पश्चात भी उन्हीं का साथ होगा। किसी कामना का जन्म ही न हो। केवल परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं, अन्य सब उन्हीं का रूप है। उन्हीं का अस्तित्व बना रहे। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मई २०२५
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