Thursday, 22 May 2025

हमारा चिंतन, हर विचार, सम्पूर्ण अस्तित्व अपने आप में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ---

 हमारा चिंतन, हर विचार, सम्पूर्ण अस्तित्व अपने आप में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ---

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हमारा कार्य निरंतर परमात्मा की चेतना में रहना है, सारा कार्य तो परमात्मा स्वयं कर रहे हैं। अपने चारों ओर के वातावरण को अनुकूल बनाने का प्रयास स्वयं को ही करना पड़ेगा, फिर परमात्मा की कृपा ही अनुकूलता के रूप में आती है।
श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम कहते हैं --
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा| दुर्लभ साज सुलभ करि पावा||"
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ|
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ||"
अर्थात् "यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तरने के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं| जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है||"
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च|
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||"
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मनुष्य की एकमात्र समस्या है -- परमात्मा को उपलब्ध/समर्पित होना। अन्य कोई समस्या नहीं है। हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों? यही तो सनातन धर्म हमें सिखाता है। हमारे सब दु:खों, कष्टों और पीडाओं का एकमात्र कारण है -- परमात्मा से पृथकता। अन्य कोई कारण नहीं है। अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ केंद्र पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ। वे इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारे ध्रुव ही नहीं, हमारी नौका के कर्णधार भी हैं। उनको अपना हाथ थमा देंगे तो हम भटकेंगे नहीं। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी।
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पुनश्च: --- अनन्य भाव से कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। निरंतर पुरुषोत्तम की चेतना में रहें। निज जीवन में पुरुषोत्तम को व्यक्त करें। यही ब्राह्मी-स्थिति है, यही कूटस्थ-चैतन्य है। निरंतर इसका चिंतन हमें वीतराग और स्थितप्रज्ञ बना देगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२५

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