राष्ट्र पर आसन्न घोर संकट की आशंकाओं के संदर्भ में मेरा पहला प्रश्न :--- क्या हमारी अकर्मण्यता, पुरुषार्थहीनता, प्रमाद, और ईश्वर पर अत्यधिक अंध-निर्भरता आत्मघातक है?
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वर्तमान में मुझे लगता है कि हिन्दू समाज की स्थिति उस शुतुरमुर्ग की सी हो गई है जो सामने संकट को देखकर आँख बंद कर लेता है या अपना मुंह मिट्टी में छिपा लेता है। अपनी आत्मरक्षार्थ स्वयं कुछ करना नहीं चाहता और कहता है कि जैसी ईश्वर की इच्छा होगी वैसे ही होगा। क्या हम पुरुषार्थहीन और निर्वीर्य हो गए हैं? कोई कुछ आवाज उठाता है तो उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है?
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जिस तरह से हिंदुओं में हिन्दुत्व की चेतना, धर्म का ज्ञान, और जनसंख्या कम होती जा रही है, क्या हम अपने से अधिक बढ़ रहे अधर्मियों द्वारा भविष्य में मार तो नहीं दिये जाएँगे? इतिहास तो यही कहता है। कमजोर जाति को बलशील जाति सदा नष्ट कर देती है।
१५ मई २०२१
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