मान-सम्मान और यश-कीर्ति की न्यूनतम कामना भी माया का एक अस्त्र है जो निश्चित रूप से हमें भटकाता है ---
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किसी पूर्व जन्म में हो सकता है मैंने कोई अच्छे कर्म किए होंगे, जिनका पुण्य अब फलीभूत हो रहा है। परमात्मा से परमप्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा, साधना मार्ग की प्राप्ति, गुरु लाभ, आंतरिक मार्गदर्शन, और अनुभूतियों द्वारा इस विषय की अच्छी समझ -- उसी का परिणाम है। अन्यथा न तो श्रुतियों को समझने की बौद्धिक क्षमता मेरे पास है, और न आगम ग्रंथों की। कुछ भी उल्लेखनीय सांसारिक उपलब्धि मेरे पास नहीं है। सिर्फ़ हरिःकृपा है।
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यह सृष्टि परमात्मा की है, जिसके हम अब अंश हैं। परमात्मा की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी हमारी स्वयं की सृष्टि में है। मेरी स्वयं की आध्यात्मिक गति तीब्र होगी तभी समाज और राष्ट्र की भी होगी। कहीं कमी है तो दोष मेरा ही है जिसे मुझे ही दूर करना होगा।
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मेरा यह अनुभव है कि मान-सम्मान और यश-कीर्ति की न्यूनतम कामना भी असत्य के मार्ग की ओर ले जाने वाला एक भटकाव है। यह माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है जिसने बड़े बड़े लोगों को असत्य के मार्ग पर भटकाया है, और निरंतर भटका रहा है। इससे बचो। निरंतर कूटस्थ परमात्मा को याद करो, व उन्हीं की चेतना में रहो। जो मौन में परमात्मा के साथ हैं, उन्हें सांसारिक गपशप के लिए समय कहाँ? अपने स्वयं का समय अब और नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि यह परमात्मा की अमानत है।
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भगवान कहते हैं ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् -- मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०:३॥"
अर्थात् -- जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, मर्त्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है॥
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"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०:११॥"
अर्थात् उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
१ जून २०२२
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