गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
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भावार्थ जैसा मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धि चक्र), प्रजापति (आज्ञा चक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है|
पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०
Somadatta Sharma
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